रचते हो तुम नित मुझको
लिखते हो तुम नित मुझको
कभी प्राण प्यारी
कभी मृगनयनी
कभी उर्वशी
कभी जलपरी
मैं हूँ तुम्हारी प्रेरणा
मैं हूँ तुम्हारी प्रेम कविता
भरते ही रोज़ रंग नए तुम
रचते हो रोज़ रंग नए तुम
खाली कैनवस में
रंग तुम्हारे प्रेम के
यूँ लगते हैं बिखरने
जैसे धरती की चादर पर
सूरज की किरणें
मैं हूँ तुम्हारी प्रेम प्रेरणा
मैं हूँ तुम्हारी प्रेम कविता
हर पल बिखराते हो सुर तुम
लय और ताल के साथ
नृत्य करती हूँ मैं जिस पर
वो केवल धुन तुम्हारे प्रेम की
एक सूनी शाम प्रेम की
मैं हूँ तुम्हारा प्रेम रंग
मैं हूँ तुम्हारी प्रेम कविता
डॉ. रवीन्द्रन
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