बुधवार, 10 जनवरी 2024

सृष्टि की अकुलाहट

 

कजरा, गजरा, बिंदी ,लाली सब, कुछ रूठे- रूठे हैं।

पायल, बिछिया, चूड़ी, कंगना, सब गूंगे -गूंगे हैं।।

सदियाँ बीती युग भी बदले, लेकिन तुम ना आए जी।

बिरहा के मारे जीवन के, सावन सूखे -सूखे हैं।।

 

धड़कन धड़के तन्हा-तन्हा, आँसू भी बेजार हुए।

निर्मोही से नेह लगाकर, हम भी तो बेकार हुए।।

सिसक रहे हैं दिन और रैना, संझा भी उदास भई।

अब के बरस भी वो ना आया, हम तो बिखरे-बिखरे हैं।

 

सदियाँ बीती युग भी बदले, लेकिन तुम ना आए जी।

बिरहा के मारे जीवन के, सावन सूखे - सूखे हैं।

 

दम-दम दमके, दामिनी मोरा, जियरा कँपा जाए हैं।

शरद की शीतलता भी मन को, अग्नि सा झुलसाए है।

हँसी ठिठौली करना भूली, कोप भवन में जा बैठी।

अंदेशा हुआ अनहोनी का अब, देह से प्राण भी छूटे-छूटे है।

 

बिरहा के मारे जीवन के सावन, सूखे- सूखे है।

सदियाँ बीती युग भी बदले, लेकिन तुम ना आए जी।

 

घुमड़- घुमड़, घन घिर- घिर आवे, बरसे बिना ही लौट हैं जावे।

स्वाति नक्षत्र के जल बिन चातक, प्यासा-प्यासा ही मर जावे।।

देख के मोरी विरह वेदना,सृष्टि भी अकुलाएँ हैं।

"प्रीत" की मदिरा पीने आजा, अधर ये प्यासे-प्यासे हैं।।

 

कजरा, गज़रा, बिंदी, लाली, सब कुछ झूठे-झूठे हैं।

पायल, बिछिया, चूड़ी, कंगना सब, कुछ गूंगे-गूंगे हैं।।

सदियाँ बीती युग भी बदले, लेकिन तुम ना आए जी।

बिरहा के मारे जीवन के, सावन सूखे-सूखे हैं।‌

 

- डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत"

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