शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

लकीरों के मायने

 

दूर आकाश में एक लम्बी सफेद लकीर

और, लकीर के आगे उड़ता एक हवाई जहाज़

मानो, दम्भ भरता मनु का सृजन

पर दूर ज़मीनी हकीकत से।

वही लकीर जब खींच दी जाती,

इस पृथ्वी पटल पर

उभर आते दो राष्ट्र जमीं पर

बुनते रिश्तों के ताने-बाने।

कई लकीरें…

कहीं जोड़ती, कहीं तोड़ती

आडी, तिरछी, लम्बी, छोटी, पतली, मोटी

कपाल पर खड़ी, तिलक बन जाती

हाथों में पड़ी, किस्मत बतलाती

दो सिरे उस लकीर के

उलझ गए तो सुलझ की उलझन

सध गए तो महा गठबंधन।

किताबों में उन आड़ी पड़ी लकीरों पे टंगे वो कई अक्षर

शुकर गुज़ार हैं, उन लकीरों के

जिन्होंने करीने से उन अक्षरों को सजा के इतिहास संजोया ,

वरना, देखी हैं हमने कई लड़ाइयां

जहाँ  शब्दों को सँभालने वाला कोई नहीं था।

आ बैठ ! चंद लकीरें खींचते हैं!

न तू राजा न मैं रंक

, मन बहलाते हैं

सीधे रहे और ना मिले

तो ग़म नहीं

सुना है… वो लम्बी रेल के गोल चक्के

अधूरे है लकीरों के बिना!!! 

 

-    - सौरभ सोनी

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