सोमवार, 6 नवंबर 2023

भाषा

 

 भाषाएँ तो सब सुन्दर हैं

हर भाषा का है मान अपना

कोई छोटी न कोई बड़ी

सबमें छिपा सम्मान अपना

यह तो अल्हड़  सहेलियों हैं

हाथों में हाथ दे फिरती हैं

कोई गोरी कोई साँवरी -सी

लंबी मोटी कुछ दुबरी हैं

आपस में कितना खुश रहतीं

हँसती- ठिठोलियाँ करतीं हैं

घुल मिलकर यूँही सखियों सी

सुन्दर साहित्य वह गढ़तीं हैं

साहित्य विचार हैं मानव के

जिसकी न कोई भाषा हैं

वह तो एहसास है अंतस के

बोली ने जिसे तराशा है

फिर क्योंकर मानव जब देखो

भाषा को लेकर लड़ते हो

जिसके अपने मन भेद नहीं

उसे लेकर व्यर्थ झगड़ते हो

यह भेद तो तेरे भीतर हैं

है मान अपमान का ज़हर भरा

इन भाषाओँ के बीच सदा

है पक्षपात का गरल भरा

उस विष को क्योंकर हरदम तुम

इनके रिश्तों में बोते हो

यह तो सदा से निश्छल हैं

इनको निश्छल ही रहने दो

- सरस दरबारी

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