दीवारें मेरे कमरे की,
जो थीं कल तक परिचित।
पहचान कर भी आज,
बन रही हैं अनजान।।
दोष मेरा है या उनका,
यह तो न समझ पाया।
हर संभव कोशिश की थी,
इनको खुश रखने की।।
पर न जाने क्यों इनका,
आज मिजाज ठीक नहीं।
मुझको ही देख कर,
शायद चिढ़ा रही हैं।।
ऐसा लगता कहती हैं..
ऐ 'पुनीत' जरा देख इधर,
हम भी खड़े हैं बरसों से।
कभी धूप कभी बरसात,
कभी सर्दी कभी बादल।।
तू क्यों शोक मना रहा,
मौसम तो आते-जाते रहते हैं।
जाकर के तो यह मौसम,
लौट के फिर भी आते हैं।।
जो बीत रहा है मौसम आज,
कल फिर लौटेगा धीरे-धीरे।
तब करना इसका स्वागत,
हौले-हौले धीरे-धीरे।।
-पुनीत शुक्ला
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