सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

दीवारें

 दीवारें मेरे कमरे की,

जो थीं कल तक परिचित।

पहचान कर भी आज,

बन रही हैं अनजान।।

 

दोष मेरा है या उनका,

यह तो न समझ पाया।

हर संभव कोशिश की थी,

इनको खुश रखने की।।

 

पर न जाने क्यों इनका,

आज मिजाज ठीक नहीं।

मुझको ही देख कर,

शायद चिढ़ा रही हैं।।

 

ऐसा लगता कहती हैं..

 

'पुनीत' जरा देख इधर,

हम भी खड़े हैं बरसों से।

कभी धूप कभी बरसात,

कभी सर्दी कभी बादल।।

 

तू क्यों शोक मना रहा,

मौसम तो आते-जाते रहते हैं।

जाकर के तो यह मौसम,

लौट के फिर भी आते हैं।।

 

जो बीत रहा है मौसम आज,

कल फिर लौटेगा धीरे-धीरे।

तब करना इसका स्वागत,

हौले-हौले धीरे-धीरे।।

 

-पुनीत शुक्ला

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