मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास प्रियवर!
कोई
अंतर नहीं पड़ता-
पैदल
आ रही हूँ
या
बस में आ रही हूँ
या
रेल में आ रही हूँ
या
फ्लाइट में आ रही हूँ
कोई
अंतर नहीं पड़ता-
मैं
बर्तन उठाती हूँ
या
ईंटों की परात उठाती हूँ
या
बच्चों की कॉपियाँ उठाती हूँ
या
कम्पनी की फ़ाइलें उठाती हूँ
बस
मैं आ रही हूँ पिया जी!
मेरे
दिल में घोर अँधेरा है
मेरी
आँखों से बरसात हो रही है
रह-रह
कर तुम्हारी याद की बिजली चमकती है
वही
मुझे रास्ता दिखा रही है
सिर्फ़
तुलसीदास को नहीं यह हक़
कि
वह साँप को रस्सी समझ ले
एक विरहन को भी यह हक़ मिलना चाहिए
मैं
पहुँचने ही वाली हूँ प्रियतम!
कोई
अंतर नहीं पड़ता -
तुम
किसी और के साथ हो
या
मुझे भूल चुके हो
या
तुम्हें भी मेरी याद आ रही है
या
तुम हो भी या नहीं हो
मैं
बिना आगा-पीछा सोचे आ रही हूँ सजन!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें