धुआँ -धुआँ देसी शान हो गई,
मेरी प्यारी हिंदी कहीं खो गई।
उस दिन हम सब टी.वी. पर,
अशोका सीरियल देख रहे थे।
बच्चे मुझ से हर शब्द का,
मतलब पूछ रहे थे।
अरे! सीरियल तो हिंदी में है!
क्या तुम्हें हिंदी भी समझ नहीं आती?
बन गए हो तुम सब अंग्रेजों के नाती।
मैंने पूछा -
दोहे आते हैं ?
तो सुनाओ।
हाँ! है ना गाँठ वाला,
धागा ना तुड़वाओ।
अच्छा बड़े अंग्रेज बनते हो,
तो शेक्सपियर के सौलिड ही सुना दो।
अंग्रेज़ी साहित्य का ज्ञान समझा दो।
टी.वी. पर हिंदी की खबरें नहीं पढ़ सकते,
एक वाक्य हिंदी में ढंग से नहीं लिख सकते।
कोई नोटिस हिंदी में आ जाता है,
तो हमें ट्रांसलेटर बनाते हैं।
और खुद को, बड़े ज्ञानी बताते है।
पूछते हैं -विकल्प क्या होता है,
श्रेणी किसे कहते है ?
चोटी में बंधने वाली वेणी
किसे कहते हैं ?
अब गूगल और फ़ेस बुक पर भी
रचनाएँ ट्रांसलेट हो जाती हैं ,
तभी तो यह जेनरेशन उन्हें पढ़ पाती है।
इन्हें हिंदी समझने के लिए
एक ट्रान्स्लेटर चाहिए,
हमारी हिंदी वाला नहीं,
अंग्रेज़ी वाला थिएटर चाहिए।
अब हमारी जेनरेशन को
यह चिंता नहीं सताती कि हम देसी हैं।
यह चिंता सताती है कि
यह देश में भी विदेशी है।
जाने ये दिन कैसे बदल गए हैं
,
हम तो बस इनके ट्रांसलेटर बन गए हैं।
~ मनवीन कौर
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