तुम्हारे साथ अपना ये सफ़र इतना ही था शायद
ख़ुदा की रहमतों का वो असर इतना ही था शायद
चले जब तक न लगती दूर थी काफ़ी हमें मंज़िल
कोई मुश्किल न रोके राह डर इतना ही था शायद
उठाके चल दिये बिस्तर हुई जब शाम इस घर से
लिखा इस आशियाने में बसर इतना ही था शायद
तेरी इन तंग गलियों में कठिन था सांस तक लेना
खुले दिल का तुम्हारा ये नगर इतना ही था शायद
थी कोशिश तेज लहरों की निगल जाएँ हमें पूरा
डुबा पाया न जो हम को भँवर इतना ही था शायद
-कृष्ण बक्षी
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