शनिवार, 16 दिसंबर 2023

ग़ज़ल

तुम्हारे साथ अपना ये सफ़र इतना ही था शायद

ख़ुदा की रहमतों का वो असर इतना ही था शायद

 

चले जब तक न लगती दूर थी काफ़ी हमें मंज़िल

कोई मुश्किल न रोके राह डर इतना ही था शायद

 

उठाके चल दिये बिस्तर हुई जब शाम इस घर से

लिखा इस आशियाने में बसर इतना ही था शायद

 

तेरी इन तंग गलियों में कठिन था सांस तक लेना

खुले दिल का तुम्हारा ये नगर इतना ही था शायद

 

थी कोशिश तेज लहरों की निगल जाएँ हमें पूरा

डुबा पाया न जो हम को भँवर इतना ही था शायद

 

-कृष्ण बक्षी

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