जब जन्म लेती है कोई कविता
तब वह नंगी ही होती है,
किसी सोच में उधड़ते नग्न विचारों सी,
फिर भी ना जाने क्यों
हमें कविताओं को आवरणों में
ढकने की आदत हो गई है,
नग्नता या तो कलात्मक नजर आती है,
या फिर अश्लील
भूखे पेट का किस्सा कहती कविता में,
कि भ्रष्टाचार की बात करती कविता
नहीं दंभ भरती किसी कलाकारी का,
कविताएँ जब न्याय मांगने आगे आती है
तब वो अन्याय सी ही नंग-धडंग
किसी लाचार दलित उत्पीड़न सी
दौड़ती है सड़क के बीचों बीच
नारी के नंगे जिस्म से शुरू होकर
पुरूष की नगीं सोच तक सिमटती है
लिंग भेद की कथा कहती कविता
रहने दीजिए
इस कविता को एक अश्लील कविता ही,
कि क्रांतियाँ ना कभी कलात्मक हुई
ना होगीं।
-हरदीप सबरवाल
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