इंतज़ार तो किया था नेकी ने
कि अपने-अपने हिस्से की खुशी
सब मनु के बच्चे मनायें
मिल बाँट कर उपज खायें ,
मेहनत की कमाई होती रहे
सच्चाई के बीज बोती रहे।
ममता की छाँव में नन्हे सोएँ
दर्द रोग से तड़पकर न रोएँ !
परंतु कोई सर्प-फन उठ ही
जाता है और डस लेता है
मासूम, मुलायम हरे-भरे जीवन,
ज़हर मरता नहीं, मार देता है।
संयम और दया की क्षीण
आँखें देखती है क्रूर दृश्य,
द्रव्य होती धड़कनों से
बस इतना ही हो पाता है
कि बैर भी बह जाता है,
प्रतिशोध अग्नि बुझते-बुझते
जब राख हो जाए,
भर देती अनायास, मिट्टी में पोषण
ताकि वह फिर उर्वरा हो जाए
लहलहाते खेत की सूरत में
धरा पर अंकुर प्रेम के
भर देती है बिन पूछे
हथेलियाँ कुशलक्षेम के।
चक्र यह सृजन-विनाश का
घृणा-उल्लास का
यही तो हिंडोला है मनुज के
अवसाद का या रास का।
इंतज़ार आक्रोश भी करे
सौम्य शांति के सोने तक
नहीं पाने की आशा जिसे
छीनता है वही,
स्वयं शव होने तक।
जब तक संतुलन बना हुआ है
जग जैसे-तैसे बचा हुआ है,
तलवार खेलते हैं शौर्य-खेल
और घाव भरें, औषधि-तेल।
- प्रीति गोविंदराज
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