स्पर्श, कितना
ही स्नेहिल हो पर
रह ही जाता है कुछ ना कुछ अनछुआ
अच्छे से अच्छा वक्ता भी जब अभिव्यक्त करता है,
कुछ तो है, जो रह जाता अव्यक्त
नजर कितनी भी पारखी क्यों ना रही हो,
नजरअंदाज हो ही जाता है कोई विशिष्ट गुण फिर भी
फिर कसक सी रह जाती है,
उस अनछुए रह गए स्पर्श की,
अव्यक्त रह गए शब्द की,
और एक अदद पारखी नज़र की
असल में ये कोई लालच या लालसा नहीं,
ये तो संबल है जीवन का,
जो जीवन को और बेहतर जीने का
जज़्बा देता है…
- हरदीप सबरवाल
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