गिरना, उठना, चलना, चलते जाना,
राह यही जीवन की चाहे आएँ कितनी बाधा
छल, झूठे
वायदे, कपट
और द्वेष इसमें आते हैं,
परवाह न कर चलते जाना ही मुझको आता
आगे जाना फिर पीछे आना इसमें ही वक्त गुजरा सारा,
हर जगह देखे सौदे बिकते हुए इंसा देखे
निश्छल प्यार भी पाया, मनुहार भी पाया,
लेकिन किस्मत के खेल न्यारे नहीं कोई पाया
सुबह, शाम, दोपहरी और निशा में गुजरी अपनी,
ज्यों हो कोई प्यासा सावन
फिर भी चलना आया रास नहीं किया इसमें विश्राम,
शायद कोई मधुर झरना पा जाऊँ
प्यास बुझे , बुझे
तन की भीषण ज्वाला,
तब तक चलते जाना बस चलते ही जाना है।
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अमिताभ शुक्ल
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