खिड़की से बाहर खड़ा ठूँठ,
रोज़ मुझे क्यों लगता ऐसे,
बुला रहा हो मुझको जैसे ।
कह रहा हो मुझसे जैसे,
हम तुम हैं एक जैसे।
निगाह डाली ऊपर से नीचे उस पर,
धब्बे पड़ी, उसकी ढीली खुरदरी छाल पर ।
मैंने आईने में देखा अपने अक़्स को,
अपनी रूखी खाल पर पड़े धब्बों को
सूखी त्वचा पर पड़ी झुर्रियों को
।
अरे हाँ,पाया उसके जैसी अपने को ।
वह बोला उदास मत हो,
नन्हा सा था,प्यार से सिंचित बड़ा हुआ मैं
ताज़े मुलायम पत्तों से भरा हुआ था मैं
फूल थे और फलों से लदा हुआ था मैं ।
मज़बूत डालियों से तना हुआ था मैं ।
अब भी मनोबल नहीं टूटा है मेरा
प्रकृति के सौंदर्य का अनुपम रूप है मेरा।
ठीक वैसे ही जन्म लिया तुमने
वात्सल्य की गोदी में पल कर
शैशव में रूप सलोना पाया तुमने।
यौवन लाया तन पर आभा
फूल खिले और महकी बगिया,
सृष्टि की अनुपम कृति हो तुम भी।
कालचक्र से कोई नहीं बच पाया है,
खोना पड़ता है बहुत कुछ जो पाया है।
ऊपरी परिवर्तन कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे,
हैं मज़बूत जड़ें तो डट कर खड़े रह पाएँगे।
मौत आ गई तो मुझे अफ़सोस न होगा
मेरा तन फिर भी काम बहुत आयेगा।
ईंधन, फ़र्नीचर,से शोभित हर घर होगा
मेरे बीजों से मेरा वंश बढ़ेगा।
ठीक उसी तरह मज़बूती से खड़ी रहो,
शिक्षा,संस्कार के जो बीज बोए हैं तुमने,
आने वाली पीढ़ी अवश्य सींचेगी उनको।
उनमें अस्तित्व तुम्हारा दिखेगा उनको।
तो फिर चलो उठो सजो सँवर जाओ।
खड़ी हुई, पास जा पहुँची उस ठूँठ के,
एक ही फूल खिला था डाली पर उसके
तोड़ लिया तरु का इशारा पा कर झट से,
बाल सँवार जब जूड़े में मैंने उसे लगाया,
फूल देख बालों में वह मंद मंद मुस्काया।
अब वह ठूँठ नहीं ,मित्र है,
मेरा हमसाया।
-अन्नदा पाटनी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें