मन
किसी फ्रिज- सा
ठूंस कर रखता है अपने अंदर
ढेर सारा बासी वक्त
कभी बन
किसी अल्मारी सा
टंगी रहती है जिसके हैंगरों में
फिर दोबारा कभी ना उपयोग होने वाली
तह लगी सी पुरानी भावनाएँ
मन
किसी होटल और सरायखाने सा
किराए पर देता अपने कमरें
अजनबी मेहमानों जैसे
दो तीन दिन रूकते ख्यालों को
मन कई बार
होता है किसी गिद्ध सा
नोचता रहता है
अतीत की सड़ी गली लाश को
कुरेद कुरेद कर
मन होता है धूल के किसी कण जैसा
फिर भी समेटे रखता है
अपने अंदर पूरा ब्रह्मांड
- -- हरदीप सबरवाल
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