मरूँगा मैं भी एक दिन
नहीं जानता किस अपराधी की गोली
किस दंगाई के चाकू
किस गाड़ी के पहिए से
महामारी से, रक्तचाप
से, कैंसर से
पानी में डूबकर
धरती में समाकर
दोस्तों से या दुश्मनों से
नहीं चुन पाऊँगा मैं अपनी मृत्यु
जैसे नहीं चुना था जीवन मैंने
अपना घर, गाँव, देश
वंश-गोत्र, बंधु-बांधव
जाति-धर्म
नहीं थी मेरी कोई साँस ऐसी
जो मेरी इच्छा से चली
अनायास ही सही मगर
कितना अपना जैसा था जीवन
कितनी अपनी धरती
कितना अपना आकाश
हवा, नदी, फूल, पक्षी
मानिनी स्त्रियाँ
नटखट बच्चे
कितने मोह-पाश
कितनी स्नेहिल गीली स्मृतियाँ
घटेगी एक दिन मृत्यु भी अनायास
लेकिन कहाँ ले जा सकेगी वह
इस मर्त्यलोक से दूर मुझे
रहेगी इसी मिट्टी में
असंख्य जीवनरूपों में घटने के लिए
मेरी काया
बहेगी किसी रक्त में
मेरे अंतर की शेष अग्नि
रोप जाऊँगा जाते-जाते
अपनी असंख्य अधूरी इच्छाएँ यहीं
इसी धरती में !
-
ध्रुव गुप्त
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