बिना चेहरों के भी
कई किरदार होते हैं
और कुछ कहानियाँ
नही बयान करती क़िस्से
सिर्फ तय करती है सफर वो
आगाज से
अपने आप को समेटे हुऐ
अपने
बेचहरा किरदारो सी
ना कुछ ढँकती
ना कुछ दिखाती
ये नंगी कहानियाँ
घट रही हैं रोज़ाना
चकाचौंध से दूर
किसी फुटपाथ पर
मजदूरी का बोझ उठाए हाथों में
कहीं सुदूर एक गाँव में
किसी अल्हड़ युवती के ख्वाबों में
आसमान की छत लिए किसी स्कूल के
ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों के मध्य
हजारों कहानियाँ रोज जन्म लेती
उफनती और फिर
दफ़न हो जाती है अनजानी मिट्टियों में
अनकही, अनसुनी, बेचेहरा ...
-हरदीप सबरवाल
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