चुग्गा चुनते कबूतरों का किस्सा पढ़े
वक्त बीता,
अब हर तरफ चुग्गा चुनते आदमी दिखते हैं।
शहरों के कोलाहल से दूर गए कबूतर, तीतर, बटेर,
आधे खाए,भूखे होने और अधिक खाने की लालसा में
चुग्गा चुनने लगा अब मनुष्य।
सेठ, साहूकार, नेता, दलाल जो भी है मालामाल,
दिखा देता है, छुआ
देता है चुग्गा।
न कोई काम, न
धाम, न आराम,कैसे चले संसार?
चुनना और चुगना होता है चुग्गा।
कोई रंग, आकार, प्रकृति, निश्चित स्वाद नहीं होता,
लेकिन कुछ दिन चला देता है चुग्गा।
कई ऋतुएँ और उम्र बीत जाती हैं चुगते, चुगते,
चुगते, चुगते ही वोट दे कर सरकार भी बना देता
है आदमी।
जंगलों में भी जानवर हुए कम, हुई
पाबंदी शिकार पर भी अब,
आखेट का मजा भी दे देता है चुग्गा
चुगाना।
चुग्गा चुगाते चुगाते कई क्रियाएँ हो
जाती हैं संपन्न,
शरीर और मन की भूख शांति के भी प्रबंध।
इस तरह बना रहता है रिश्ता सारी
क्रियाओं का,
श्रम और पूँजी के महत्व की बनी रहती है
अहमियत।
चुग्गे से ही चलते हैं घर, दफ्तर, जीवन, देश, व्यापार,
जिसके बिना ठप्प हो सकता है देश और अर्थव्यवस्था ।।
- अमिताभ शुक्ल
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