सोमवार, 29 जनवरी 2024

महानगर

 कुछ संवेदना शायद

महानगर से भी हो तो ठीक ही होगा

क्या कसूर उसका

कुछ जमीं थी उसके पास

जिस पर लगे वृक्षों पर

अनगिनत परिंदे कोलाहल करते थे

महानगर भी उन्मुक्त होकर झूमता था,  नाचता था कभी

इतराता भी होगा

 

मगर सिमटता गया,

शरण दे देकर

देख मजबूरी

असंख्य गरीब गुरबों की

उपेक्षित,

जो दुत्कारे गए जाति बोध से

उत्पीड़न अपमान से

अपने ही गाँवों में, या छोटे छोटे कस्बों से आए और छिप गए

अपनी पुरानी पहचान से

जो अब अपने

जिस्मानी ताकत से,  

कठिन श्रम और जोश से

लगे हैं शायद इस महानगर को

और बड़ा करने में

कि जो आ रहे हैं

उन रुकी आउटर पर खड़ी ट्रेनों से

कुछ बैचन युवा हैं

जो नई नौकरी पर पहले दिन पर हैं

एक दो नई

नवेली दुल्हन हैं

जो आजाद होकर

बिखराकर अपने केशों की

चेहरे पर गिर आई एक

लट को धीरे- धीरे

आखें खोलते हुए

नीचे वाले होठ को

तिरछे से दबाते हुए

देखते हुए कहती है

हाय

दईया इत्तौ सुंदर है

जे शहर

और महानगर

स्वागत करता है

हाथ फैलाए

इन सब के सपनों को

साकार करने में

फिर से तैयार थोड़ा सा और

सिमटने में।

 

-यशोवर्धन

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