कितना कुछ अछूता - सा होता है संसार में,
जिंदगी के व्यापार और बाजार में,
यह छूटा हुआ जबकि बहुत अहम होता है,
लेकिन नहीं आ पाता प्रबुद्ध संसार में।
न हल चलाते किसान, न
हथौड़े चलाते श्रमिक,
न धूल और अभावों में जीते ग्रामीण और
गरीब,
विषय नहीं होते कविता, चर्चा
या मीडिया का,
क्योंकि, रस और आनंद में आ जाती है कमी इस प्रकार
से।
चमकती फोटुओं, मुस्कुराते
चेहरों और समारोहों से ,
बढ़ती है कवरेज की गरिमा औ’ आनंद,
टी आर पी और पुरुस्कारों का सिलसिला
बनता है,
इस प्रकार के बौद्धिक कार्यक्रमों और
संवाद से।
पीड़ा, दुख, त्रास, संत्रास भी असंसदीय से लगते हैं,
अब आज के इस नए संसार में,
अस्पतालों, यतीम खानों, दर्द
की दास्तानों के किस्से,
बस बनते हैं क्षण भर चर्चा का विषय कभी-कभी।
दुनिया बदली हो या न बदली हो,
जीने और सोचने के ढंग बदले हैं,
जो ऐसी चर्चाओं को देते हैं झटक,
या फिर बौद्धिक विमर्श में उड़ा देते
हैं इन्हें शब्दजाल में।
भूकंप, ज्वालामुखी, युद्ध, अकाल, बाढ़
भी,
आते हैं बहुत दूर, दूर
की जगहों में,
चित्रों से देख लेते हैं हम समाचार
बतौर,
क्या कर सकते हैं अभी इतने काम हैं।
राजनीति, कला, साहित्य, अर्थव्यवस्था,
इनसे ही बनती और चलती है सबकी व्यवस्था,
यही अपने प्रिय विषय और रुचि के काम
हैं,
क्या, क्या करें भैया दुखिया सब संसार है।
-अमिताभ शुक्ल
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