शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

अकेली


देकर सारा ताप अपना

सांध्य सी मैं ढ़ल रही हूँ

साथ होकर भी तुम्हारे

मैं अकेली चल रही हूँ

 

है सघन वन रात काली

थामकर राहें कटीली

निर्भीक हो डसते फनों  को

बन भवानी कुचल रही हूँ

नए- नए प्रतिमान नित

इस धरा पर गढ़ रही हूँ

साथ होकर भी तुम्हारे

मैं अकेली चल रही हूँ

 

बन गए हो तुम समन्दर,

पाकर नदियों का समर्पण

खार सारा मैं तुम्हारा

अमृत बनाकर पी रही हूँ

विश्वास की ठूंठों पर नई -

शाखें उगाती  चल रही हूँ

साथ होकर भी तुम्हारे

मैं अकेली चल रही हूँ

 

देता क्षितिज है गवाही

अवनि अंबर के मिलन की

पल्लवित, मैं बीज करके

संस्कारों के सजल से

भावी नव निर्माण की

ईंटें अवा में रख रही हूँ

साथ होकर भी तुम्हारे

मैं अकेली चल रही हूँ

 

मन के टुकड़े थामकर

मुस्कुराती देह लेकर

सृष्टि की अवतारणी बन

निर्धूम अग्नि जल रही हूँ

अपनी ही परछाई से

अपने मन की कह रही हूँ

साथ होकर भी तुम्हारे मैं

अकेली चल रही हूँ

     

 -मीना गोदरे अवनि

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