लड़कियाँ जो प्रेम में नहीं पड़ी,
वो बन्द नहीं थी सात तालों में,
अपनी मर्जी से उन्होंने अपने सर पर रखा,
अपने पिताओं की पगड़ी को,
और गले में डाल लिए अपनी अपनी मांओं के
दुप्पटे
उनके हाथों की उंगलियों में अंगूठियाँ
या छल्ले ना होकर,
छोटे भाई बहनों के हाथ फसे रहे,
लड़के, जिन्होंने पहाड़ का सीना चीर दूध की
नदियाँ नहीं बहाई,
और चलाते रहे बस बड़ी मेहनत से खेतों
में हल,
या किसी कारखाने में मशीनें,
कहीं घिसते रहे किसी दफ्तर में कलम,
या दुकानें सजा बैठे रहे,
जिन्होंने अपनी ही रान का मांस पका कर
नहीं परोसा
किसी पागल प्रेमी सा,
बस अपनी छोटी मोटी इच्छाओं को करते रहे
कुर्बान,
किन्हीं अपनों की छोटी इच्छाएँ पूरी करने में,
ऐसे लड़के और लड़कियाँ, बढ़
चढ़ कर आगे आए,
प्रेम कहानियों के पाठक बन,
इनके दम पर ही रुपहले पर्दे पर बॉक्स
ऑफिस ध्वस्त करती,
प्रेम की तमाम गाथाएँ,
ऐसे लड़के और लड़कियाँ जब भी कभी
कोई प्रेम कहानी पढ़ते या देखते, तो
कल्पना में
खुद नायक या नायिका बन
आँखों में चमक बिखेरते….
- हरदीप सबरवाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें