ढूँढ रही हूँ मैं,
कभी
इधर, कभी उधर,
आँगन
में बाहर,
कभी छत पर चढ़,
एक
टुकड़ा धूप।
जो
कभी आई थी,
मेरे
ही घर में,
उस
झरोखे के ज़रिए,
बन
नन्ही प्यारी किरणे,
जमा
हो गई थीं,
एक
निरीह कोने में,
चुपके
से सिकुड़,
एक टुकड़ा
धूप ।
आशा
का सुंदर,
बूटे
कढ़ा, रेशम से,
चमकते
सितारों वाला,
बिछौना
लिए हाथों में,
ढूँढ
रही हूँ मैं वही,
एक
टुकड़ा धूप ।
-मनवीन कौर
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