ना ही
खुल सकी मुझसे चाँदनी की परतें,
तपती
दोपहरी में शाम की ठंडक नहीं उतार पाया कभी,
ना
ही रात को कर सका आज़ाद उसके अंधेरों से ही,
सुबह
से नहीं छीन पाया उसके सांझ में ढलने का इंतजार को भी,
प्रेम
पत्र दुनिया की सबसे कीमती वस्तु नहीं लगे कभी,
ना
ही उनके चोरी होने के भय ने ही सताया,
और
ना ही हो सके मुझसे रूह और जिस्म,
अलग-अलग
प्रेम
की रूहानी अनुभूति के अनुभव लिए,
प्रेम
कविता के तमाम आयामों को छूने में
अनुत्तीर्ण-सा
रहने पर भी
ना
जाने कैसे
सहज
ही फूट पड़ती है
मेरे
अंतर्मन में प्रेम की धाराएँ, जब कभी देर से घर आने पर,
मेरे
खाने की थाली के पास ही तुम्हारी थाली भी मेरे इंतजार में ठंडी हो रही होती हैं,
जब
भी बाजार में तुम्हारी मितव्ययी राशन लिस्ट की वस्तुएँ लेते,
अनायास
ही तुम्हारे हाथ बढ़ जाते हैं,
मेरी
पसंद की किसी ब्रांडेड वस्तु की तरफ,
जब रात
को सोते हुए अचानक ही मेरे वजूद को
तुम्हारे
आलिंगन की चादर अपने गुनगुने स्पर्श से ढक लेती है,
तुम्हारे
साथ होने भर को महसूस करते ही बहता है,
मेरे
रोम रोम में,
नैसर्गिक
सा निश्चल प्रेम…..
-हरदीप सबरवाल
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