सात दिनों से
जला
नहीं है,
‘भागमती’
का चूल्हा |
दिन-दिन
भर घूमी गलियों में
मिलता
किन्तु न काम,
लगता
है नाराज़ हो गए
श्रम-केशव
अभिराम,
सिकड़ी
माँगे,
रूठ
गया है,
‘जुगजितनी’
का दूल्हा |
बाँई
आँख फड़कती रह-रह,
सूख
गए हैं गाल,
करतब
कोने में मकड़ी का,
उलझा-उलझा
जाल,
हड्डी-पसली,
एक
हुए हैं,
उतरा
हल का कूल्हा |
खूँटी
पर ही टँगी हुई है,
बनिहारी
की खाँच,
पेट
में अफरा और नसों की
जारी
अनथक जाँच,
तड़पी
बेबस रही अकेली,
समय
फाँदता ऊल्हा |
-शिवानन्द
सिंह 'सहयोगी'
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