मंगलवार, 26 मार्च 2024

समय फाँदता ऊल्हा

सात दिनों से

जला नहीं है,

‘भागमती’ का चूल्हा |

 

दिन-दिन भर घूमी गलियों में

मिलता किन्तु न काम,

लगता है नाराज़ हो गए

श्रम-केशव अभिराम,

सिकड़ी माँगे,

रूठ गया है,

‘जुगजितनी’ का दूल्हा |

 

बाँई आँख फड़कती रह-रह,

सूख गए हैं गाल,

करतब कोने में मकड़ी का,

उलझा-उलझा जाल,

हड्डी-पसली,

एक हुए हैं,

उतरा हल का कूल्हा |

 

खूँटी पर ही टँगी हुई है,

बनिहारी की खाँच,

पेट में अफरा और नसों की 

जारी अनथक जाँच,

तड़पी बेबस रही अकेली,

समय फाँदता ऊल्हा |

 

-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

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