कैसे
कह दें?
कहो
विधा !
नवगीत
हमारे कंधों पर है।
नेटवर्क
के कुल पन्नों पर,
फैला
ऐसा जाल,
अच्छी
रचनाओं का अब है,
बहुत
बुरा हर हाल,
प्रकाशनों
की
भीड़
बहुत जो,
प्रकाशकों
के धंधों पर है।
विज्ञापन
से भरी पड़ी है,
हर
घर की दीवार,
'सत्यमेव जयते' को गीता,
पढ़ती
बारंबार,
हर
आँगन बाज़ार
हुआ
है,
लूटतंत्र
हर बंधों पर है।
शब्दों
में आपाधापी है,
हरा
खेत का धान,
हर बनारसी
के मुँह में है,
एक
मगहिया पान,
क्या
लिखना है?
का
भी ठेका,
जन-समाज
के अंधों पर है।
शिवानन्द
सिंह 'सहयोगी'
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