सोच कोई पल रहा सघन है
आज बहुत विचलित ये मन है
बाहर बाहर शोर बहुत है
अन्दर अन्दर ख़ालीपन है
बार- बार सुधियों ने धोया
फिर भी मैला दिल दर्पण है
तुझसे नहीं शिकायत कोई
मेरी तो ख़ुद से अनबन है
सूरज सिर पर लिए खड़ा हूँ
पावों तले पर बहुत गलन है
शहरों में अपना अपना है
गाँव में अब भी अपनापन है
तेरे बन्दों के सुख दुख में
पूर्ण समर्पित ये जीवन है
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डॉ .सुरेश अवस्थी
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