गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

घर की याद

  

घर   की    याद   सताती   है।

आँखों  तक       जाती  है।

 

देखो!   बादल   की   रूमाल

आँचल - सी    लहराती     है।

 

कभी-कभी ये दिल की आग

पानी   में    लग   जाती    है।

 

मेरी        काली        तनहाई

कुछ    रंगीन      बनाती    है।

 

समझ नहीं  आता ! यह दिल!

दूल्हा      है?    बाराती     है?

 

बिना   हवा   के    प्यार-पतंग

फूँकों   से    उड़     जाती   है।

 

गोरा   हो    या    काला    हो

हर     बादल    बरसाती    है।

 

इक  जंजीर    हवा   की   है

साँसों   को    समझाती     है।

 

अब    मेरा     पीछा    छोड़ो!

दिल  से   भूल  हो  जाती  है!

 

मैं   वो    किश्ती     हूँ   लोगों

जो     तूफ़ान     उठाती    है!

 

नाच     नाचता     रहता    है

मीरा   तो    खो    जाती    है!

 

हिंदी     वालों !     देखो    तो!

कविता   यूँ   हो     जाती   है!

 

एक    बला    चूरू   की   हूँ

जो   'मनमीत'    कहाती    है!

-    मन मीत

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें