खर्च लंबा है समय का
और छोटी है कमाई |
चल रहे हैं
पग नहीं हैं लड़खड़ाए,
रोज़ भूभल
में बहुत हैं छटपटाए,
ठंड में ठिठुरी हुई है,
कर्ज की मोटी रजाई |
एक मुट्ठी
भात की ख़ातिर जगे हैं,
इस अँधेरी
रात को शातिर लगे हैं,
चाटता है कपट लेकिन
शहर की मीठी मलाई |
आदमी हैं
आदमी-से रह रहे हैं,
सत्य है सब
इसलिए ही कह रहे हैं,
हार मानेगी नहीं यह
परिश्रमी अपनी कलाई |
शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
वाराणसी
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