सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

एक मुट्ठी भात

 खर्च लंबा है समय का

और छोटी है कमाई |

 

चल रहे हैं

पग नहीं हैं लड़खड़ाए,

रोज़ भूभल

में बहुत हैं छटपटाए,

ठंड में ठिठुरी हुई है,

कर्ज की मोटी रजाई |

 

एक मुट्ठी

भात की ख़ातिर जगे हैं,

इस अँधेरी

रात को शातिर लगे हैं,

चाटता है कपट लेकिन

शहर की मीठी मलाई |

 

आदमी हैं

आदमी-से रह रहे हैं,

सत्य है सब

इसलिए ही कह रहे हैं,

हार मानेगी नहीं यह

परिश्रमी अपनी कलाई |

 

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

           वाराणसी

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