पगडंडी तोड़ रही
गेंदे के फूल।
कुहरे के कंबल में
सूरज छिपा है,
‘गइया’
के गोबर से
आँगन लिपा है,
गंगा नहान गई
गँवई की धूल।
सरसों की पुलई पर
कविता लिखी है,
मँडराते भँवरों की
टोली दिखी है,
टुकुर-टुकुर ताक रहा
नदिया का कूल।
शिवता के मंदिर में
दीया जला है,
ऊँची दीवारों पर
अद्भुत कला है,
नक़दी के ब्याजों में
घूम रहा मूल।
शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'
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