शनिवार, 2 मार्च 2024

पिछले से पिछले के

 हँसता रहता है वसंत भी,

पतझड़ के केशों में प्राय:,

बन केसर का फूल |

 

फूलों को चुनती रहती है,

खेतों में नेहा,

बादल की छतरी के नीचे,

नाच रहे केहा,

झींसी झरी, लिपट बूँदों से,

हँसकर गले मिली है आकर,

घूँघट काढ़े धूल |

 

नहीं हुई अपवित्र घास के,

पाँवों की पायल,

नहीं हुआ है हरिअर-हरिअर,

गोयँड़ भी घायल,

हिंडोला सा, झूल रही है,

पुरवा की बाँहों में जकड़ी,

पुनर्नवा की झूल |

 

सूर्योदय होने की आहट,

लाई नई किरन,

लगे कुलाँचे भरने लय के,

हिरनी और हिरन,

पीड़ा के अक्षर बन हँसते,

पिछले से पिछले के जो हैं,

कूलवती के कूल |

 

छोटा शहर बसा भाषा का,

मधुरित मृदु शब्दित,

शब्दशक्ति पीड़ा की विलिखित,

एक गीत चर्चित,

आँसू के गालों की लाली,

भावों के किंजल्क कथानक,

त्रासदियों के मूल |

 

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

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