ठिठुर रहीं इच्छाएँ, सहमे-सहमे
जज्बात हैं,
यह एक नई सदी और एक नया साल है।
धूप भी अब आँगन तक नहीं आती,
बिल्डिंगों के जाल हैं।
चिड़ियाएँ अब नहीं चहकती ,
शोरगुल से बेजार हैं।
आपाधापी भरे समाचारों से ,
बिखर रहे नए विचार
हैं।
सभ्यता अब इतनी आगे बढ़ी,
कि ए आई का राज है.
धरती पर रहना भारी हुआ,
चाँद पर नए संसार हैं।
कौन सुने, क्या
बुनें,
सब रेडिमेड तैयार हैं.
अगली सदी की कौन कहे,
जीना अभी दुश्वार है।
जो भी होगा सब अदृश्य है,
इतना विचित्र संसार है।
ठिठुर रहीं इच्छाएँ,
एक और
नया साल है।
-अमिताभ शुक्ल
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