राम-राम कहने
से जिनको, अपने मन
का रावण रोके!
उस
रावण को राम-राम!
अपने
तन-मन की लंका
को
अभी
समय है आग
दीजिये
अपने
घर में लौट
आइये अब
कलुष - समंदर पार
कीजिये
राम को अल्ला
भी कह दो तो
राम हँसी
में टाल रहेंगे
धीरज
की दीवार के
आगे
तीर सभी
बेहाल रहेंगे
जो
थाली में थूक
रहा है,
मेरे
घर के हर
भेदी को:
हर
बैंगन को राम-राम!
जनम
राम का परण
राम का
भजन
राम का मरण
राम का
पानी पावक
हवा धरित्री
तारों
का यह गगन
राम का
पुण्यात्मा हो
या हो पापी
राम
से कोई बच
न पाया
यह
कर्मों की मेंहदी
प्यारे
राम
से बेहतर रच
न पाया
अपने
संशय के नागों
से, जो ख़ुद को
डसता रहता है
उस
जोबन को राम-राम!
ना
वेटीकन ना ही
काबा
ना
ही ग़ाज़ा पट्टी माँगी
अपनी कायरता
धोने को
इक
साबुन की बट्टी माँगी
इसमें भी
हम बरस पाँच
सौ
चुप
बैठे थे हार
रहे थे
उनसे
अनुग्रह करते थे
जो
तलवारों की
धार रहे थे
कटे
शीश की मीनारों
से, रक्त में घुलकर
बह जाता था
उस
चंदन को राम-राम!
यही सनातन
रीत हमारी
नास्तिक तक
भी ऋषि हुए हैं
हमने अपने
घोर विरोधी
के
जाकर भी पाँव
छुए हैं
हमको अब यह मत सिखलाओ
घर
में मिल कर कैसे
रहते
हमसे
ही जाना दुनिया
ने
घर
में मिल कर ऐसे
रहते
कैसे
अपना भाग्य बखानूँ?
जो
भारत में पाया
मैंने:
उस
जीवन को राम-राम!
राम-राम कहने
से जिनको, अपने मन
का रावण रोके!
उस
रावण को राम-राम!
-मन मीत
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