राम
लला का
रूप , मनोहर सौम्य सलोना।
नज़र नहीं लग जाय , लगाऊँ एक डिठौना।।
बालक
छवि अभिरूप , अधर मुस्कान मनोहर।
उन्नत संस्कृति
भाल , समेटे दीप्त
धरोहर।।
मुख
वैभव अति सौम्य , कांति ज्यों निश्छल बालक।
महिमा अपरंपार ,
बने
जगतारण पालक।।
सुगढ़ नासिका;
पुष्ट , देह
नवनीत सुचिक्कन।
लंबी ग्रीवा;
भौंह , सुदृढ़ जिसमें हित- चिंतन।।
कमल नयन में
शील , भंगिमा नम्र विनीता।
समदर्शी है
दृष्टि , समाहित भाव
पुनीता।।
रत्नजड़ित
है मुकुट , शीश पर चढ़ इठलाता।
दिनकर
भी स्वयंमेव , भोर प्रभा संग लाता।।
रेख-
रेख हर कोण , मुखर; अन्तस
का दर्पण।
वह
भव बन्धन मुक्त , करे जो तन- मन अर्पण।।
घुंघराले से
केश, समेटें जग की
पीड़ा।
हैं रेशम
की भाँति, मगर फिर भी लें बीड़ा।।
ज्यों सरोज की पाँख, अधर- पुट लाल गुलाबी
जब रहते
हैं मौन, दिखें किंचित
महराबी।।
चन्दन तिलक लला,
गंध केसर की
महके।
दिव्य
अलौकिक आभ, चहुँदिसि, लह-लह लहके।।
हस्ती सम
हैं कर्ण , अबोला भी
सुन लेते।
ब्रह्मा-ध्वनि
स्वर-नाद, सकल तत्क्षण गुन लेते।।
कुण्डल
आकृति व्योम , परिक्रमा
मानों करती।
नभ-जल-थल-पाताल, चराचर
बीच विचरती।।
वक्ष सुदीर्घ
विशाल , कण्ठ से झूले
माला।
हीरक
द्युति अनिमेष , स्वर्ण दमके झलकाला।।
कटि
करधन बड़भाग, धन्य मोतिन की लड़ियाँ।
छूकर गुन
लेतीं , मोक्ष की निश्चित
कड़ियाँ।।
हैं बलिष्ठ
भुजदण्ड , मुलायम नर्म उँगलियाँ।
सोहें कंगन
चार , विहँसती रहें
मुँदरियाँ।।
पग
पैंजन झनकार , ध्वनित होती है जब-जब।
उर्जा नव- चैतन्य , प्रवाहित मनु में तब- तब।।
श्याम बरन
है गात , लुनाई
मृदुतम मुखपर।
कर दे भव से
पार , दर्श है ऐसा
सुखकर।।
किस
बिध अंतस-बाह्य, रूप का होय बखाना।
वो
सागर निःसीम , 'सुधा' इक मीन
समाना।
- सुधा राठौर
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