तन पर दाग़ भले हैं लेकिन,
मन
पर कोई दाग़ नहीं है।
संतुष्टि
के चातक हैं हम,
कुटिल
दृष्टि के काग नहीं है।
हम तो गीत
नहीं लिख पाए,
आँसू
की पीड़ा गाई है।
टूटे सपनों
को सिलने में,
अपनी
उमर गुज़र आई है।
वो
तो दौर अलग था अब तो,
जीवन
के आयाम नए हैं।
कई विरासत
धूमिल होती,
अब
लोगों के काम नए हैं।
नई मधुरता
है सरगम में,
पहले जैसा
राग नहीं है।
तन पर दाग़
भले हैं लेकिन,
मन
पर कोई दाग़ नहीं है।
मधुमासों
के बीच पले जो,
उनको
पतझड़ से क्या लेना?
जो जीवन
को हार चुके हैं,
उनको क्या
उम्मीदें देना?
समरभूमि है
सबका जीवन,
पग-पग
होते युद्ध नए हैं।
कैसे अंगुलिमाल सुधरता?
इस
युग के अब बुद्ध नए हैं।
शोणित
ठंडा नव पीढ़ी का,
उर अन्तस् में आग नहीं है।
तन
पर दाग़
भले हैं लेकिन,
मन
पर कोई दाग़ नहीं है।
सीखा जो
कुछ पुरखों से है,
उसे
न अब खोने देना है।
सदियों से
जो आँखें रोई,
उन्हें न
अब रोने देना है।
सबको
मिलकर गले लगाएँ,
चाहें अपना मिले पराया।
मन
प्राण से नमन हैं उनको,
जिसने
हैं ये चमन सजाया।
आपाधापी शहर - गाँव
है,
पर रंगीला
फ़ाग नहीं है।
तन
पर दाग़
भले हैं लेकिन,
मन
पर कोई दाग़ नहीं है।
आसमान में उड़ना
गर है,
तो दानों का मोह न करना।
जमीं हमेशा
देखे रहना,
चाहें जीना
या फ़िर मरना।
याद रखेगी
तुमको दुनिया,
सिर्फ़ तुम्हारे ही कामों से।
दर-दर लक्ष्मी भीख
माँगती,
फ़र्क
नहीं होता नामों से।
लघु क्यारी
फूलों की हैं पर,
नागफ़नी के बाग नहीं है।
तन
पर दाग़
भले हैं लेकिन,
मन पर कोई दाग़ नहीं है।
-अवनीश त्रिवेदी 'अभय'
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