मेरा
गाँव शहर के बाहर,
पुल
के एक किनारे पर है।
कूड़े
के ऊँचे टीलों पर,
साफ-सफाई
तड़प रही है,
नगर
पालिका यहाँ नहीं है,
पंचायत
धन हड़प रही है,
ढही
दिवारों का मंदिर है,
खटिया
बिछी, इनारे पर है।
शहरी
वातावरणों से यह,
पहले
ही से दूर रहा है,
सात्विकता
का अब भी जीवन,
नहीं
नशे से चूर रहा है,
मुख्य
मार्ग पर हर विज्ञापन,
लटका
एक इशारे पर है।
खेतों-खेतों
हरियाली का,
एक सुवासित दिन रहता है,
एक वसंत रहा करता है,
फूल
खिला कमसिन रहता है,
मन
बहलाते और रिझाते
सुंदर
एक विहारे पर है।
शिवानन्द
सिंह 'सहयोगी'