सोमवार, 22 अप्रैल 2024

मेरा गाँव शहर के बाहर

 

मेरा गाँव शहर के बाहर,

पुल के एक किनारे पर है।

 

कूड़े के ऊँचे टीलों पर,

साफ-सफाई तड़प रही है,

नगर पालिका यहाँ नहीं है,

पंचायत धन हड़प रही है,

ढही दिवारों का मंदिर है,

खटिया बिछी, इनारे पर है।

 

शहरी वातावरणों से यह,

पहले ही से दूर रहा है,

सात्विकता का अब भी जीवन,

नहीं नशे से चूर रहा है,

मुख्य मार्ग पर हर विज्ञापन,

लटका एक इशारे पर है।

 

खेतों-खेतों हरियाली का,

एक  सुवासित दिन रहता है,

एक  वसंत रहा करता है,

फूल खिला कमसिन रहता है,

मन बहलाते और रिझाते

सुंदर एक विहारे पर है।

 

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

रविवार, 21 अप्रैल 2024

मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास प्रियवर!

 मैं आ रही हूँ तुम्हारे पास प्रियवर!

 

कोई अंतर नहीं पड़ता-

 

पैदल आ रही हूँ

या बस में आ रही हूँ

या रेल में आ रही हूँ

या फ्लाइट में आ रही हूँ

 

कोई अंतर नहीं पड़ता-

 

मैं बर्तन उठाती हूँ

या ईंटों की परात उठाती हूँ

या बच्चों की कॉपियाँ उठाती हूँ

या कम्पनी की फ़ाइलें उठाती हूँ

 

बस मैं आ रही हूँ पिया जी!

 

मेरे दिल में घोर अँधेरा है

मेरी आँखों से बरसात हो रही है

रह-रह कर तुम्हारी याद की बिजली चमकती है

वही मुझे रास्ता दिखा रही है

 

सिर्फ़ तुलसीदास को नहीं यह हक़

कि वह साँप को रस्सी समझ ले

एक विरहन को भी यह हक़ मिलना चाहिए 

मैं पहुँचने ही वाली हूँ प्रियतम!

 

कोई अंतर नहीं पड़ता -


तुम किसी और के साथ हो

या मुझे भूल चुके हो

या तुम्हें भी मेरी याद आ रही है

या तुम हो भी या नहीं हो

 

मैं बिना आगा-पीछा सोचे आ रही हूँ सजन!

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शनिवार, 20 अप्रैल 2024

नवगीत हमारे कंधों पर है


कैसे कह दें?

कहो विधा !

नवगीत हमारे कंधों पर है।

 

नेटवर्क के कुल पन्नों पर,

फैला ऐसा जाल,

अच्छी रचनाओं का अब है,

बहुत बुरा हर हाल,

प्रकाशनों की

भीड़ बहुत जो,

प्रकाशकों के धंधों पर  है।

 

विज्ञापन से भरी पड़ी है,

हर घर की दीवार,

'सत्यमेव जयते' को गीता,

पढ़ती बारंबार,

हर आँगन बाज़ार

हुआ है,

लूटतंत्र हर बंधों पर है।

 

शब्दों में आपाधापी है,

हरा खेत का धान,

हर बनारसी के मुँह में है,

एक मगहिया पान,

क्या लिखना है?

का भी ठेका,

जन-समाज के अंधों पर है।

 

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'