मैं गिरिराज मैं पर्वत राज
भारत का सदा रहा सरताज
प्रहरी भारत का सदियों से
चौकीदार सा डटा रहा
सर्द बर्फीली हवा रोके
युगों से दीवार बन कर खड़ा रहा
मैं गढ़ रजत, मैं देव स्थल
ऋषि मुनियों का योग तप
जो शून्य में तपस्या कर कर के
रामायण महाभारत गाते रहे
मैं गढ़ सुन्दर, मैं हिम आलय
कैसे धवल आवरण का परिष्कार करूँ
नये पनपते आतंक का कैसे मैं बहिष्कार करूँ
कैसे उर की बर्फ़ पिघलाकर
नई गंगा का अवतरण करूं
मेरी शीतलता भंग हुई
अब कैसे रक्षा का कवच बनूँ
लोग भूल गए मेरा आभार
अब बर्फ़ भी तपने लगी
ऐसे उबल रहे शोले अंगार
रोके हर नस्ल के लोग
जो दिल में लाए विकार
अब किसको कैसे रोकूँ
मेरी युग की उपासना हुई बेकार
इस पार ज्ञान की गंगा थी
धोती खेत और सुंदर वन
ऋषि मुनि स्वच्छंद विचरते
बाँटते ज्ञान का अमृत जल
इस के कण कण में रमती
ज्ञान ओ’ कला की अमृत धारा
मैं ने भारत के उज्ज्वल मस्तक को
सदा दिया वरद साया
मेरे कैलाश पर्वत पर
विचरते शिव और पार्वती
मैंने ही दी उनको
निष्कलंक रमणीय धरती
रत्न जड़ित मुकुट धारे
गर्वित सर उठा खड़ा रहा
पर आज है सर मेरा
शर्म और दुख से झुका हुआ
उस पार के रोके यवन द्रविड
पर आज मेरा दिल व्यथित द्रवित
आज गोली उस पार नहीं इस पार चली
उस पार वालों को दी नहीं पनाह
पर अपनों को कैसे करूँ फ़ना
अब अपनों पर कैसे वार करूँ
घर में पले दुश्मनों को
किस ढाल से ढँकूँ रक्षा करूँ
गोली चली इधर से या उधर से
ग़द्दारी पनपी कहॉ से किधर से
यह सब तो हैं अपने
देख रहा हूँ कैसे भयानक सपने
यह दुश्मन था या दोस्त
लगता है कोई खाना बदोश
ज़िन्दगी के ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर
ठोकर खा गया है
मेरा दिल ज़ख़्मी कर गया है
कोई राह से भटकते भटकते
बर्फ़ और सख़्त हो गई है
पिघलते पिघलते
पिघल के कहाँ जाएँ
गंगा भी अब थक गई है
मैल धोते- धोते
वह ऋषि मुनि भी नहीं रहे
वेदों का जो संदेश देते
इन केसर के पीले खेतों पर कहाँ से लाल रंग आया
अरे!यह तो मेरे ही खून का कतरा है
जो आतंक ने है बहाया
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